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Sunday, January 8, 2017

इटावा : डकैतों के लिए जगजाहिर यमुना-चंबल के बीहड़ों में शिक्षा की लौ, चंबल क्षेत्र में शिक्षकों ने मिलकर बनाया आदर्श विद्यालय, शिक्षक वेतन से देते हैं एक से डेढ़ हजार रुपए

डकैतों के लिए जगजाहिर यमुना-चंबल के बीहड़ों में शिक्षा की लौ जल रही है। चकरनगर क्षेत्र के बीहड़ में उद्योग-धंधे व रोजगार तो दूर खेती-किसानी भी दूभर है, ऐसी जगह शिक्षा को लेकर कितनी सजगता विस्मित करती है। लेकिन, बीहड़ी क्षेत्र, दुर्गम रास्तों तथा विकास में पिछड़े इसी क्षेत्र में एक ऐसा विद्यालय है जिसका महज डेढ़ साल में कायाकल्प हो गया और अब यह विद्यालय जिले में उत्कृष्ट उदाहरण बन गया है। बात हो रही है प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय कांयछी की, जहां पहुंचने के लिए तीन किलोमीटर कच्चा रास्ता तय करना पड़ता है। कांयछी गांव का रास्ता कितना दुर्गम है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेज भी इस गांव को खोज नहीं पाए थे। इस कारण यहां कोई भी शिक्षक जाना नहीं चाहता था।1एक ही परिसर में बने इन विद्यालयों के शिक्षकों के साझा परिश्रम का ही यह परिणाम है कि मात्र एक वर्ष में न सिर्फ यहां का वातावरण, साफ-सफाई, भवन, साज-सज्जा बल्कि शैक्षिक गुणवत्ता में आशातीत वृद्धि हुई है। प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक मनोज कुमार यादव व सहायक अध्यापक राम सिंदूर तथा उच्च प्राथमिक विद्यालय के इंचार्ज बरानाम सिंह व सहायक अध्यापक राजेश कुमार वर्मा के प्रयासों से आज यहां पढ़ रहे बच्चों का सामान्य ज्ञान व गणित विकास खंड के अन्य परिषदीय विद्यालयों के बच्चों की तुलना में कई गुना ज्यादा है। चारों शिक्षक प्रत्येक माह अपने वेतन से एक से डेढ़ हजार रुपये निकाल कर विद्यालय व यहां के बच्चों और शिक्षा पर व्यय करते हैं। गत वर्ष इन विद्यालयों के बच्चों को टाई-बेल्ट, बैग, कॉपियां, ज्योमेट्री बॉक्स आदि मुफ्त दिये थे।

अपना नाम तक नहीं लिख पाते थे बच्चे : रामसिंदूर व राजेश कुमार वर्मा ने एक ही वर्ष पूर्व इस विद्यालय को ज्वाइन किया था। उनके मुताबिक एक साल पहले यहां कक्षा सात व आठ तक के बच्चे अपना नाम तक नहीं लिख पाते थे और यहां के कक्षों में कंडे, मौरंग आदि भरे रहते थे। उन्होंने एक-दो माह तक बच्चों को शिक्षित करने के साथ ही विद्यालय की साफ-सफाई करवाई और, चूंकि यहां बाउंड्रीवॉल नहीं थी, शिक्षकों ने रुपये जोड़कर कंटीले तार खरीदे तथा विद्यार्थियों के घरों से बल्लियां लेकर अस्थायी बाउंड्री बनवाई।

यह सब करने में उन्हें हेड मास्टरों का बहुत सहयोग मिला और अब तो ग्रामीण भी सहयोग को हरदम तैयार रहते हैं। अब यहां छात्र संख्या 100 प्रतिशत रहती है।कांयछी तक पहुंचने का रास्ता है बेहद दुरूह, अंग्रेज भी नहीं खोज पाए थे गांव, चारों शिक्षक बच्चों के लिए अपने वेतन से देते हैं एक से डेढ़ हजार रुपए

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