संवादसूत्र, बाराबंकी: अगर यह कहा जाए कि परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चों के अभिभावकों ने स्कूल के बजाए खेत चलो अभियान चला रखा तो कुछ गलत न होगा, क्योंकि कि परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे किसान व खेतिहर मजूदरों के हैं। खेती का काम इस समय तेजी पर है ऐसे में वह बच्चों को स्कूल न भेजकर अपने साथ खेती के काम में लगाए हुए हैं। गेहूं की फसल की कटाई व मड़ाई के साथ ही खेत में गिर जाने वाली गेहूं की बालियों को बच्चे ही बीनते हैं। मेंथा फसल की रोपाई का काम भी बच्चों से कराया जाता है। सुबह होते ही बच्चों के साथ उनके अभिभावक खेत-खलिहान के लिए निकल पड़ते हैं। हैदरगढ़ तहसील के ग्राम चांदूपुर में निवासी अजरुन प्रसाद गांव के किनारे पत्नी व दो बच्चों के साथ खेत में कटी पड़ी गेहूं की फसल को उठाते हुए मिला। बच्चों को स्कूल न भेजने के बारे में उसने कहा कि मात्र दो बीघा जमीन है जिसमें पिछले दो साल से खाने भर को भी अनाज नहीं पैदा हुआ। राशनकार्ड नहीं है। किसी अन्य सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल रहा। खेती के काम से ही परिवार को दो वक्त की रोटी मिलती है। कम से 10 दिन खेती का काम और है, उसके बाद बच्चों को स्कूल भेजेंगे। अजरुन ने बताया कि उसकी पुत्री ज्योति कक्षा पांच उत्तीर्ण हो गई है पर कक्षा छह में उसका दाखिला कराने जाने का मौका ही नहीं मिला। फसल काटने के बाद उसका दाखिला स्कूल में कराने जाएंगे। पुत्र सचिन कक्षा दो व सौरभ कक्षा एक का छात्र है। थरिमकदूमपुर के निवासी चेतराम के साथ उनका दस साल का बेटा भी खेत में गेहूं काटते मिला। चेतराम ने कहा कि खेतिहर मजदूरी करके उसके परिवार का भरष-पोषण होता है। बेटे का नाम गांव के प्राइमरी विद्यालय में लिखा है जब खेती का काम नहीं होता है तब स्कूल भेजता हूं। इसी गांव के निवासी शत्रोहन के दो बच्चे खेती का काम खत्म होने के बाद ही स्कूल जाते हैं। कमलेश का पुत्र, नंदलाल का एक पुत्र व दो पुत्रियां भी खेती का काम करती हैं। राम अवतार की एक पुत्री व दो पुत्र भी स्कूल तभी जाते हैं जब खेती का काम नहीं होता। राम अवतार का कहना है कि स्कूल के टीचर बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करते हैं मगर हमारी भी अपनी मजबूरी है।माता-पिता के साथ खेत में गेहूं की फसल उठाते बच्चे
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